Friday, 18 January 2013
हाँ मे पतझड़ का पत्ता हूँ
हाँ मे पतझड़ का पत्ता हूँ
हाँ मे पतझड़ का पत्ता हूँ जो तेज हवा के झोके से क्षतविक्षत हो जाता हूँ
ये बसंत का मौसम कहते हे बहार बनकर आता हें पर साथ ही तेज हवा का वेग लेकर आता हैं
तुफानो से हम घबराते नही पर हम तो अपनों से हार जाते हैं हाँ मे वो पतझड़ का पत्ता हूँ जो तेज हवा के झोके से क्षतविक्षत हो जाता हूँ
बहुत कोशिस की मैंने बचने की कभी किसी ओड मे छुपा कभी किसी ठोर मे क्योकि ये बसंत का मौसम तेज हवा का वेग लेकर आता हैं
ये वेग दर्द का एहसास करा जाता हे जेसे वृक्ष वीरान हो जाते हैं पत्ते डाली से टूट जाते हैं अपनों का साथ छुट जाता जमी पर पड़ा पत्ता निसहाये हो जाता लाख कोशिस की तुफानो से टकराने की पर हर कोशिश नाकाम रही
साथ छुटा संग अपनों का विश्वासटूटा घर टूटा परिवार टूटा दर्द के मारे दिल टूटा हाँ मे पतझड़ का पत्ता हूँ जो तेज हवा के झोके से क्षतविक्षत हो जाता हूँ
तलाश
तलाश
गंमो के सागर मैं डूबी हुई हूँ मे ,अपने पन की खोज मे खोई हुई हूँ मे
दौलत की इस दुनिया मे कहा प्यार की खुसबू जहा भी मे जाऊं एक भेद सा मे पाऊं
दिल मे कितने छाले किसे मे अपना समझ कर दिखाउ जो हे अपना वो भी तो परायो सा लगता हैं
मेरे मुस्कुराते चेहरे को एक ख़ुशी का समुंदर समझता हैं।
Tuesday, 15 January 2013
खोज
खोज
आंसू भरी आँखे मेरी हम किसे बताये कोई तो हो अपना जिसे हम अपना समझ पाए कोई नही इस दुनिया मैं तुम्हारा जिसे तुम हमदर्द समझो यह पर इंन्सान नही शैतान रहते हैं तुम आंसू पोछने के लिए किसे ढूंड रहें हो तुम्हे आंसू के बदले तोड़ कर या मिटा कर चले जायेंगे कोई हमसफर नही हैं तुम्हारा नही कोई दोस्त जो हैं तुम्हारा हकीकत मैं वो भी तुमसे अनजान हैं हर बार चोट पहुचाई हर बार ठोकर तुमने खाई फिर भी सम्भल नही पाई इस दुनिया मैं यही होता हैं घुट घुट कर जियो या मर जाओ आंसू कोई तुम्हारे नहीं पोंछेगा या फिर तुम उस मुकाम पर पहुच जाओ जहा पर दर्द भी तुम्हारे पास आने से घबराए व्यक्ति को अपना विकास स्वयम करना पड़ता हैं अपना स्थान भी स्वयम बनाना पड़ता हैं।
खोखला समाज
और हमारा समाज और पुरुष बड़ी सहजता से इन सब को स्वीकारता हैं और खुश होता हे और पुर्ष्तव पर अभिमान करता हैं। जिस मूर्ति रूपी देवी की इतनी पूजा की जाती हैं पुरुष उसी देवी के सामने हाथ जोड़ कर पैसा उन्नति खुशिया सब कुछ मांगता हैं। मगर आश्चर्य तब होता हैं की वो उसी के घर की नारी को मारना पीटना और मानसिक यातनाये यानी हर तरह से शोषण करता हैं। जरूरी नही की घर मे ही हो उसका बाहर भी शोषण होता हैं। ये समाज व पुरुष जिस धरती रूपी माँ की पूजा करते हैं उसी का दिल चिर कर खेती करते हैं। व धरती रूपी माँ समाज व जीवो का सबका पेट भरती हैं मगर ये समाज धरती को क्या देता हैं शोषण के अलावा कुछ नही जिस गंगा जल रूपी माँ के बिना जीवन अधुरा ही नही खत्म हैं उसी जल को गंदा करना व्यर्थ करना जिस माँ के अमरत्व के बिना हम जीवित नही रह सकते उसी अमरत्व को ज़हर देता हैं ये समाज प्रदूषित करता हैं ये समाज वन देवी जो हमे हवा पानी पेड़ छाया औषधी संसाधन सबकुछ मिलता हैं उसी देवी का खात्मा कर देता हैं कहने का तात्पर्य हैं की पंचतत्व से बनी ये स्रष्टि सभी मैं नारीत्व मोजूद हैं। मगर इसी नारी का शोषण अत्याचार दुराचार हर रूप रंग मैं किया जाता हैं।
Thursday, 10 January 2013
टूटते हए को तोड़ते हैं लोग
टूटते हए को तोड़ते हैं लोग बिखरे हुए को बिखरने को मजबूर करते हैं लोग
सच कहते हैं उगते सूरज को दुनिया प्रणाम करती हैं अपना रास्ता खुद बनाओ दुनिया आपके पीछे हैं।
आज का समाज साथ उसी का स्वीकारता है जो सक्षम हैं उन्नत हैं वरना रोने वाले को रुलाते हैं बेसहारा की बैसाखी तोड़ देते हैं।
मनुष्य वो प्राणी हैं जो अपने आप मैं एक उपलब्धी हैं पर क्या करे आज का मनुष्य जानवर से भी ज्यादा लाचार हैं क्योकि वो अपना आत्मविश्वास खो चूका हैं उसे आपने आप से ज्यादा अपने आस पास की समाजिक विकलांगता पर भरोसा हैं अगर वो अपनी शक्ति पहचाने तो समाज का सर्वोतम व्यक्ति हो सकता हैं।
शायद मुझे ऐसा लगता हैं की हर रिश्ते मैं विराम होता हैं।

जहा प्यार हैं वह नफरत का साया क्यों ? जहा दिल हैं वहां दर्द क्यों ? जहा सबकुछ हैं वहा फिर तन्हाई क्यों जहा प्यार हैं वहा कमी ?क्यों जहा खुशिया हैं वहां आंसू क्यों ?
शायद मुझे ऐसा लगता हैं की हर रिश्ते मैं विराम होता हैं।
वरना जहाँ दवा हैं वहां दर्द क्यों ? जहा सकून की नींद हैं वहां बेचेनी क्यों ?
जहाँ रात सपनों मैं गुजर जाती हो वहां सिर्फ सकून खोजती आँखे और
करवटे क्यों ?
शायद मुझे ऐसा लगता हैं की हर रिश्ते मैं विराम होता हैं।
पर वो गाना क्यों क्योकि मैं देख सकता हूँ सब कुछ होते हुए नही मैं नही देख सकता तुझको रोते हुए पर हर किसी के साथ ऐसा नही होता जहाँ चाहने वालो का सम्मान होता हैं फिर क्यों अपमानित होना पड़ता हैं ?
जहाँ किसी के दर्द दिल तडप उठता हैं वहां पर क्यों निश्चिन्ता आ जाती हैं ?
Tuesday, 1 January 2013
हां मैं भारत की नारी हूँ
गम पीती हूँ दर्द सहती हूँ अपनों के लिए जीती हूँ।
हां मैं नारी हूँ हां मैं ममता से भरी हूँ समर्पण मेरा भाव हैं त्याग मेरा जीवन हैं हां मैं भारत की की नारी हूँ - हां बदले मैं मुझे थोडा मान सम्मान चाहिए बस दे दो मुझे अपनों का सहारा जीवन तर जाये मेरा हां मैं भारत की वो नारी हूँ।
गम पीती हूँ दर्द सहती हूँ अपनों के लिए जीती हूँ।
हां मैं नारी हूँ हां मैं ममता से भरी हूँ समर्पण मेरा भाव हैं त्याग मेरा जीवन हैं हां मैं भारत की की नारी हूँ - हां बदले मैं मुझे थोडा मान सम्मान चाहिए बस दे दो मुझे अपनों का सहारा जीवन तर जाये मेरा हां मैं भारत की वो नारी हूँ।
हा अगर नारी के रूप मैं कोई अपवाद मिल जाये तो तुम् मुझे दोष न देना क्योकि वो नारी नही नारी के रूप मैं कुल नासनी हैं संस्कारहीन हैं।
नारी तो आदर्श की मूर्ति होती हैं समर्पण की देवी होती हैं ममता की मूरत होती हैं प्यार का सागर होती हैं अभावों मैं हस कर जीना जानती हैं।
जानती हैं परिवार को तोडती नही जोडती हैं खुद अपनी इच्छाओ को त्याग कर सबका ध्यान रखती हैं तभी तो वो माँ कहलाती हैं बहन और पत्नी कहलाती हैं।
वरना संस्कारहीन नारी वह तो मर्गत्र्श्ना की भाती हैं वह नारी अशांति फेलाने वाली नारी, नारी नही निशाचरनी कहलाती हैं।
हां मैं भारत की नारी हूँ।
यहाँ सीता हुई अनुसुइया हुई यहाँ झाँसी की रानी अहिल्या हुई भक्ति की देवी मीरा हुई पन्नाधाय सी निष्ठावान हुई।
हां मैं भारत की नारी हूँ यहा माँ दुर्गा की छवि हुई
हां मैं भारत की नारी हुई।
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