पहचान -
हमें समझ मैं यह नही आता की यह समाज व्यक्ति की पहचान किस रूप मैं देखकर उसके व्यक्तिगत जीवन का पता चला पता हैं।
हकीकत में जो व्यक्ति दीखता हैं वो होता नही हैं . जो होता हैं वो दीखता नही हें ठीक उसी प्रकार जेसे रेगिस्तान मैं चिलमिलाती धुप दूर से ऐसी दिखाई पडती हैं जेसे कोई नदिया नीर या झील हो मगर कोसो दूर से पास आने पर ठीक विपरीत न नदिया न नीर न झील और आगे देखने पर फिर वही नजारा देखने मे आता हैं उसी तरह व्यक्ति के बनावटी जीवन को देखकर यह पता लगा पाना कठिन हैं की वह क्या हैं '
उसका जीवन बाहरी व् अंदरूनी दोनों ठीक विपरीत होते हैं व्यक्ति जिस समाज मे रहता हैं उस समाज के हिसाब से उसका अपना स्तर बनाये रखने और पारिवारिक प्रस्टभूमि और संस्कारो को ध्यान मे रखते हुए व्यक्ति कितनी ही परेशानियों मे क्यों न हो वो समाज मे अपने आप को उसी स्तर का दिखाना पसंद करेगा जिसमे समाज मैं उसकी प्रतिष्ठा बनी हुई हैं व्यक्ति कही तो अपने आप को साबित करेगा व्यक्ति विपदाओ से निपट सकता हें संकटों से जूझ सकता है अपने आप के दुखो से घबरा कर और समय से लड़कर सफल हो सकता हैं पर समाज में एक बार अपना स्तर व पारिवारिक प्रस्टभूमि को नकार कर जी नहीं सकता क्योकि व्यक्ति हर संघर्शो से अकेले लड़ सकता हैं पर परिवार और समाज से जीत नहीं सकता कहने का मतलब ये की व्यक्ति का दोहरा जीवन बाहरी जीवन व् निजी जीवन अपने आप से व अपनों से वक्त परिवार से व समाज आर्थिक और मानसिक इस सब से हट कर बाहरी जीवन मैं अपने आप को साबित करता हैं
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