जन संगठन हो राज नीती से परे

आज देश में जो परिस्थितिया है, उनसे निपटने में प्रशासन और राज नेता सभी
असहाय सिध्द हो रहे है
यदि कोई दल सत्ता में है, तो वह अपने सत्ता के अहंकार में जनता की आवाज
को दबाने में नहीं हिचकता
यदि विरोध में है तो वह भी अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए आरोप
प्रत्यारोप में भी उलझा रहता है
और येन केन सत्ता में पहुँचना चाहता है अत समस्या यथावत है समाधान की
संभावना समाप्त होती जा रही है
ऐसे में एक ही आशा की किरण है जन संगठन परन्तु इसे भी
समाज की सद्भावना
और सहयोग चाहिए
ये दोनों तभी होता है जब जन संगठन को चलाने वाला नेत्रत्व पूर्ण रूप से
निस्वार्थ हो निरभिमानी हो
और अपने लक्ष्य के लिए समर्पित हो ऐसे समर्पित कार्यकर्ता आसमान से नहीं टपकते
उन्हें प्रारम्भ से प्रशिक्षण की जरुरत होती है इस प्रशिक्षण में अनुशासन
का विशेष महत्व है
कई बार कोई जन संगठन अपनी दिशा को बदलता दिखाई देता है कभी -कभी उसके कार्य करता
योग्य नेत्रत्व के अभाव में भटक जाते है बड़ा दुःख
होता है जब शिखर के
करीब पहुचे लोगो में
व्यक्तिगत अहम् का टकराव प्रारंभ हो जाता है और वह शिखर से वह पतित हो जाता है
और उसका अनुयायी दिग्भ्रमित हो जाता है और इधर उधर छिटक जाता है तब वह सोचता
है की
हमने जस लक्ष्य को साध रखा था वह संभवत हम नहीं
पा सकेगे इस प्रकार
निराश होकर वह संगठन
अपनी मौत मर जाता है या फिर राज नेताओं की चाल बाजी या परिस्थितियों से
समझौता करके अपनी नियति की बाग़ डौर उन्हें सौप देता है और उस जन संगठन
की स्थिति आत्म ह्त्या में बदल जाती है इस परिस्थिति को कैसे सम्हाला जाय
इसका विचार आवश्यक है हमारे देश में प्राचीन शास्त्रों में ऐसी स्थिति को
ठीक करने के लिए कुछ उदाहरणों से उपाय स्पष्ट होते है
भगवान् राम के वन गमन के अवसर पर उनका निर्णय कितना सही था वे चाहते तो
दशरथ की बात को अनदेखा करके वन गमन नहीं करते परिस्थितिया भी अनुकूल थी
कैकयी की उपेक्षा करने पर कोई राजनैतिक संकट भी नहीं आता बाकी सब उनके
अनुकूल ही थे कैकयी पुत्र भरत भी अनुकूल ही रहते लेकिन उन्होंने राष्ट्र
की स्थिति पर विचार किया उनसे पूर्व के अवतारी पुरुष भगवान् परशुराम ने
अपने हिसाब से समाज को दिशा दे ही दी थी लेकिन उनके क्षात्र शक्ति के
विरोध और ब्राह्मण शक्ति को सम्मान देने के आवेश में समाज में रावण जैसा
विद्वान ब्राहण द्वारा अनाचार व् आतंक बढ़ने लगा उसका प्रभाव पुरे विश्व
में बढ़ता जा रहा थ और उसकी छाया विश्वामित्र के आश्रम तक आ चुकी थी राम
ने विश्वामित्र के आश्रम में रह कर जिस स्थिति को देखा था और ताडका
सुबाहु के वध के साथ मारीच को भगा कर वह मिथिला में सीता स्वयंवर में
धनुष भंग के अवसर पर सभी सभी शासको के साहस और परशुराम से भयभीत होने के
दृश्य को देखा था तब उन्हें अपने कर्तव्य का बोध हुआ और उसी समय उनके
द्वारा परशुराम जी से आगे के काल खंड में अवतारी कार्य को स्वयं निर्वाह करने का निर्णय लिया गया वे समझ गए देश का सामान्य जन दलित है पीड़ित है,
और उसका शोषण होने पर वह चुपचाप रहने लगा है शोषन कर्ता धर्म और जाती के अहम् में उनका दमन करता है ऋषि मुनि वृन्द भी उनकी उपेक्षा करके अपनी
तपस्या में रत है अन्याय का प्रतिकार करने हेतु उस समाज को खडा करने का साहस कोई नहीं कर पा रहा है यहाँ तक की ऋषि मुनि भी अपने रक्त का शुल्क देकर शांत बैठा है सम्पूर्ण समाज ईश्वर के अवतार की प्रतीक्षा कर रहा है
परशुराम जी की पारी भी पूरी हो चुकी थी इसी कारण राम ने वन गमन किया
मात्र इसलिए की समाज में जन जागरण कर सके उन्होंने सम्पूर्ण राज वैभव को
त्याग कर अपने परिवार सहित गहन वन में वनवासी वेश में प्रवेश किया और
समाज में व्याप्त अशिक्षा असंस्कार व् कुरीति को दूर कर साहस का संचार
किया वहा उनके समक्ष भी आकर्षण आया शूर्पणखा ने उसके रूप विलास का
प्रलोभन भी दिया पर राम ने उसकी नाक कटवाकर यह सन्देश दिया की वे आकर्षण से प्रभावित नहीं होंगे और बाद में रावण ने छल से सीता हरण किया लेकिन वे निराश नहीं हुए और उसके बाद तो उनकी संगठन शक्ति अधिक वेग से बढ़ी और वानर और वर्शिक जाती के हनुमान सुग्रीव अंगद और जाम्बवत को अपने साथ जोड़ लिया
यह जन संगठन ही था जो राम के लिए अवैतनिक सैनिको के रूप कार्य करने को प्रस्तुत हुए और उन्होंने अपने पराक्रम से समुद्र लांघकर रावण को उसकी लंका में ही जा घेरा उस समय उनके साथ भरत का कोई राज वंश यहाँ तक की
अयोध्या का सहयोग भी नहीं था रावण की शक्ति का समूल नाश करके राम ने अपने लक्ष्य को प्राप्त किया बाद में समाज ने उनको राजा बनाया पर उनका राज्य सुखो के भोग हेतु नहीं था उन्होंने समाज की दैहिक दैविक व् भौतिक
व्याधियो को दूर करके वह राम राज्य के अधिष्ठाता बने उनके जीवन में मात्र समाज हित पर ही दृष्टि थी समाज ने उनको ईश्वरीय अवतार मानना प्रारम्भ कर दिया इन्ही राम का आदर्श मान कर दूसरे उदाहरण के रूप में द्वापर में बल
भद्र हुए है उनके समय में भी राजा स्वेच्छाचारी हो गए थे कंस जरासंध
भोमासुर तथा शिशुपाल दुर्योधन और दुशासन ये सभी समाज को भयभीत कर रहे थे
समाज का शोसन करते थे जनता भयभीत थी नारियो का शील हरण चीर हरण राज सभाओं में होता था तब बल भद्र ने अपने छोटे भाई कृष्ण को राजनीति की राह पर
छोड़ कर स्वयं ने गैर राजनैतिक स्वरूप में अपना स्थान बनाया लेकिन
दुष्टों का संहार दोनों ने मिल कर किया बलभद्र सबसे अधि बलशाली थे
लेकिन उस बल सदुपयोग उन्होंने समाज में जागृति लाने व् लोगो को समाज हित मैं की जाने वाली क्रषि कार्यों
तथा गोपालन से जोड़ा और समाज को पुरुषार्थी बनाया राम के आदर्श के कारण ही
वे बल भद्र से बलराम बन गये और किसानो के देवता कहलाये इस देह की धरती
को सिंचित करने हेतु उन्होंने हल का प्रयोग किया युग की मांग भी थी जनसंख्या कम होने पर पहले कन्दमूल फल से काम चलता था आसुरी संसृति के लोगो
ने मांसाहार को अपना लिया इसलिए बलराम जी ने अन्न तथा दुग्ध उत्पादन कर
सबको शाकाहारी बनने का सन्देश दिया वे सदा राजनीति से दूर ही रहे बड़े भाई होकर भी शासक छोटे भाई कृष्ण को ही बनाया अर्थात राज के वैभव से दूर
रह कर समाज के काम में लगे रहे इसी परम्परा में वर्तमान कल खंड में
माननीय दत्तोपंत जी ठेंगडी ने भारतीय मजदूर संघ, विद्यार्थी परिषद्
,भारतीय किसान संघ आदि जन संगठनो की स्थापना की इन
संगठनो से देश को दिशा मिल रही है जब इनमे सत्ता का आकर्षण नहीं रहेगा यह संगठन सफल रहेगे समाज
को इनसे दिशा मिलेगी राजनीति के ऊपर भी अंकुश रहेगा
उपरोक्त लेख में यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है की कार्य कर्ता के
त्याग शौर्य इन्द्रिय दमन व् धैर्य से ही जन संगठन को अपने लक्ष्य तक पहुचाया जा सकता है मात्र पर दोष दर्शन या सस्ती लोकप्रियता अथवा सुविधाभोगी बन कर समाज को दिशा देने से कोई प्रभाव नहीं पडेगा अभी भी समाज ऐसे कार्यकर्ताओं की प्रतीक्षा में है और यह भारत माता ऐसे आदर्श राम बलराम
और ठेंगडी को पुन प्रस्तुत करने को सक्षम है हमें तो अनुकूल परिस्थिति का निर्माण करना है इस गहन अन्धकार में नवप्रभात का सूर्योदय करना है जिससे
दिग दिगंत आलोकित होगा यह अवतारी कार्य होगा यही कलयुग का अवतार है
संघो
शक्ति कलोयुगे
हरिनारायण
शर्मा "निर्भीक "